संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का कंगना रनौत का सुझाव कितना दमदार?
Photo: https://www.facebook.com/KanganaRanaut
मैं यह नहीं कह रहा कि संस्कृत को बिल्कुल छोड़ देना चाहिए। निस्संदेह आज इसका अधिक प्रचलन नहीं है लेकिन यह हमारी भाषा है। इसका संरक्षण, प्रचार होना चाहिए। इसमें शोध होने चाहिएं। नए शब्द आने चाहिएं। समयानुसार संस्कृत समृद्ध होगी तो हमारी अन्य भाषाओं को भी इसका लाभ मिलेगा।
.. राजीव शर्मा ..
अभिनेत्री कंगना रनौत का एक बयान इन दिनों बहुत चर्चा में है। उनका कहना है कि संस्कृत भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। हममें से बहुत लोगों की यह भावना हो सकती है कि संस्कृत हमारे देश की राष्ट्रभाषा बने। ऐसी भावना रखना कोई अपराध नहीं है। हर किसी का किसी न किसी भाषा के प्रति लगाव होता है, कंगना का भी हो सकता है।
मैं इस विषय के दूसरे पहलू की बात करूंगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि संस्कृत का भारत के साथ बहुत गहरा रिश्ता है। हमारे वेद, पुराण, उपनिषद और अनेक प्राचीन ग्रंथ संस्कृत में हैं। आयुर्वेद भी संस्कृत में है, जो जीवन एवं स्वास्थ्य का विज्ञान है। मैं आयुर्वेद का समर्थक हूं।
भारत में शायद ही कोई भाषा होगी जिसमें संस्कृत के शब्द शामिल न हों। जिस उर्दू को एक वर्ग मुसलमानों की भाषा समझता है, उन्हें शायद मालूम न हो कि संस्कृत के बिना उर्दू नहीं है।
कई खूबियों के बावजूद इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि आज संस्कृत मुख्यत: धार्मिक संस्कार संपन्न कराने की ही भाषा समझी जाती है। देश की आम जनता या यूं कहूं कि ज़्यादातर लोग न तो संस्कृत बोल सकते हैं और न समझ सकते हैं।
हम संस्कृत पर गर्व तो कर सकते हैं लेकिन संवाद नहीं कर सकते, अपनी बात नहीं पहुंचा सकते। मैं संस्कृत विद्वानों की बात नहीं कर रहा। उन्हें निस्संदेह इस भाषा का बहुत ज्ञान होगा लेकिन उनकी संख्या कितनी है?
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मैंने इस संबंध में कुछ आंकड़े तलाशे तो मालूम हुआ कि साल 2011 में 24,821 लोगों ने बताया कि उनकी मातृभाषा संस्कृत है। दूसरी ओर भारत की आबादी करीब 135 से 140 करोड़ के बीच मानकर चलें तो मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि हर किसी को संस्कृत में पारंगत बनाने के लिए अगले 100 साल भी बहुत कम हैं।
जनभाषा वही होती है जिसे जनता बोलती, समझती है। संस्कृत के साथ ऐसा नहीं है। आज जिस तरह अंग्रेज़ी का बोलबाला है, उसे देखकर मुझे नहीं लगता कि युवा उस पर संस्कृत को वरीयता देंगे। चूंकि अंग्रेज़ी में विज्ञान है, टेक्नोलॉजी है, कानून है, व्यापार है, चिकित्सा है।
आसान शब्दों में कहा जाए तो रोटी और तरक्की है। अगर आपको अंग्रेज़ी के अलावा कोई भाषा नहीं आती है तो भी बहुत मज़े से काम चल सकता है। करियर में आगे बढ़ने की बहुत गुंजाइश रहेगी। इसके उलट, अगर संस्कृत, हिंदी, उर्दू के विद्वान हैं और अंग्रेज़ी बिल्कुल नहीं जानते तो हर कदम पर मुश्किलें आएंगी।
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इसमें संस्कृत, हिंदी या उर्दू का दोष नहीं है। हमने संस्कृत को सिर्फ पंडिताई, हिंदी को कविता-कहानी और उर्दू को शेरो-शायरी की भाषा बनाकर रखा। इनमें आधुनिक विज्ञान, टेक्नोलॉजी, कानून, व्यापार, चिकित्सा का मौलिक साहित्य कितना है?
मैं यह नहीं कह रहा कि संस्कृत को बिल्कुल छोड़ देना चाहिए। निस्संदेह आज इसका अधिक प्रचलन नहीं है लेकिन यह हमारी भाषा है। इसका संरक्षण, प्रचार होना चाहिए। इसमें शोध होने चाहिएं। नए शब्द आने चाहिएं। समयानुसार संस्कृत समृद्ध होगी तो हमारी अन्य भाषाओं को भी इसका लाभ मिलेगा।
मैं मानता हूं कि हिंदी में राष्ट्रभाषा बनने का सामर्थ्य है लेकिन इसका उन इलाकों में पर्याप्त प्रसार होना चाहिए, जहां लोग इसके साथ सहज नहीं हैं। धीरे-धीरे हिंदी जनभाषा बन जाएगी तो राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने में कोई कठिनाई नहीं होगी। हिंदी का क्षेत्रीय भाषाओं से कोई विरोध नहीं है।
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