इन लोगों ने अपना धर्म क्यों छोड़ा?
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कहा जा सकता है कि आज जातिभेद कम हो गया है लेकिन समाज में यह बदलाव धर्म के कारण नहीं, संविधान के कारण आया है। ईसाई धर्म स्वीकार करने के बाद उन्हीं लोगों में से पादरी बन रहे हैं, धर्मोपदेश दे रहे हैं, जो हिंदू धर्म में रहते उनके लिए लगभग असंभव ही था।
.. राजीव शर्मा ..
भारत में कानूनी तौर पर सबको अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है। इसी प्रकार कोई अपनी इच्छा से धर्म छोड़ सकता है और कोई धर्म अपना सकता है। हर साल अनेक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं। मैं अब तक जिन लोगों से मिला, उसके आधार पर बता सकता हूं कि भारत में कोई व्यक्ति मुख्यत: धर्म परिवर्तन क्यों करता है।
मैं इस दलील को नहीं मानता कि आज कोई किसी का जोर-जबरदस्ती से धर्म परिवर्तन करवा सकता है। कभी-कभार लोग प्रेम, शादी, किसी सहूलियत आदि के लिए तो धर्म परिवर्तन कर लेते हैं लेकिन उनकी संख्या तुलनात्मक रूप से कम है।
मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि लोगों का ईसाई धर्म के प्रति आकर्षण बढ़ा है। खासतौर से पंजाब में बड़ी संख्या में लोगों का ईसाई धर्म के प्रति झुकाव हुआ है। इसके साथ ही इंटरनेट के जरिए नास्तिकों का प्रभाव बढ़ रहा है। उनमें ज्यादातर एक्स-मुस्लिम हैं।
हो सकता है कि इन दोनों बिंदुओं पर आपको विश्वास न हो, लेकिन जैसा मैंने देखा, वह आपको बता दिया।
राजस्थान में भी कई लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया है। हालांकि यहां उतना प्रभाव नहीं है जितना कि पंजाब में देखा गया है। मैंने यह भी पाया कि जो लोग ईसाई धर्म ग्रहण कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर वे हैं जिन्होंने कभी न कभी जाति के नाम पर भेदभाव का सामना किया है।
कहा जा सकता है कि आज जातिभेद कम हो गया है लेकिन समाज में यह बदलाव धर्म के कारण नहीं, संविधान के कारण आया है। ईसाई धर्म स्वीकार करने के बाद उन्हीं लोगों में से पादरी बन रहे हैं, धर्मोपदेश दे रहे हैं, जो हिंदू धर्म में रहते उनके लिए लगभग असंभव ही था।
आप सोशल मीडिया पर देख सकते हैं कि ईसा मसीह का गुणगान करने वाली सामग्री पंजाबी भाषा में लोगों का ध्यान खूब आकर्षित कर रही है।
दूसरी ओर, उन युवाओं की संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है जिन्होंने इस्लाम छोड़ दिया। संभवत: ये शब्द पढ़कर आप कहेंगे कि ऐसा नहीं हो सकता लेकिन ऐसा है। यह सच्चाई है। साल 2021 में मुझसे कम से कम 20 ऐसे लोगों ने संपर्क किया जो इस्लाम छोड़ चुके हैं।
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हालांकि उनमें से बहुत कम ने ही समाज के सामने अपनी असलियत जाहिर की है। उन्होंने क़ुरआन पर मेरे आलेख पढ़े और मुझसे तर्क-वितर्क करने लगे। आश्चर्यजनक रूप से उनमें लगभग सभी पाकिस्तानी मुल्हिद हारिस सुल्तान, ग़ालिब कमाल, साहिल या सचवाला से प्रभावित थे।
लगभग सभी में एक बात कॉमन थी कि उनके परिवार का वातावरण बहुत सख्त था। कोई सवाल पूछने की इजाजत नहीं थी। उसके अलावा पिछले कुछ दशकों में इस्लाम के साथ जो चीजें जोड़ दी गईं (जिसके लिए बहुत हद तक पाकिस्तान का शासकवर्ग जिम्मेदार है), उससे ऐसे युवा असहज महसूस करने लगे हैं जो बहुत संवेदनशील स्वभाव के हैं। वे 'सर तन से जुदा' जैसे नारे का समर्थन नहीं कर सकते।
यहां बड़ा सवाल है कि ऐसे युवा भविष्य में किस धर्म को अपनाना पसंद करते हैं। इसका मेरे पास कोई ठोस जवाब नहीं है। शायद वे किसी धर्म को न अपनाएं या ईश्वर को तो स्वीकार कर लें लेकिन धर्म से दूरी बना लें।
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उनमें से एक-दो को छोड़कर कोई भी हिंदू धर्म नहीं अपना रहा है क्योंकि वहां सबसे पहले उनका सामना जातिभेद से होता है। हिंदू समुदाय जाति को लेकर अभी उतना उदार नहीं हुआ है, जितना होना चाहिए था। जातिभेद एक ऐसा कांटा है जो सदियों से असंख्य लोगों को पीड़ा दे चुका है लेकिन इसे निकाल फेंकने का साहस अभी तक हम नहीं कर सके हैं। अगर जाति बरकरार भी रहे तो कम से कम जातिभेद को तो समाप्त कर ही देना चाहिए।
आखिर में मेरे दो सुझाव-
1. हिंदू भाइयों/बहनों के लिए: सामाजिक तौर-तरीकों को आसान बनाएं। सामाजिक परिवेश से जातिभेद समाप्त करें।
2. मुस्लिम भाइयों/बहनों के लिए: सामाजिक तौर-तरीकों को आसान बनाएं। सामाजिक परिवेश में नरमी पैदा करें।
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